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बच्चों को अच्छा खाना सिखाना स्कूल से ही शुरू होना चाहिए

21वीं सदी की सबसे गूढ़ विडंबनाओं में से एक यह है कि मानवता, खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बावजूद, कुपोषण और अस्वस्थ भोजन की जटिलता में उलझी हुई है। यह विडंबना तब और विकराल हो जाती है जब इसकी चपेट में वे बालक आते हैं, जिनके कंधों पर भविष्य की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक नींव रखी जानी है। ऐसे में यह समझ अत्यावश्यक हो जाती है कि खाद्य साक्षरता महज़ पोषण नहीं, बल्कि नागरिकता का अनिवार्य आधार है और इसकी शिक्षा का प्रारंभ विद्यालयों से ही होना चाहिए।

हाल ही में पेरिस में आयोजित Nutrition for Growth (N4G) Summit और संयुक्त राष्ट्र द्वारा पोषण पर कार्रवाई के दशक को 2030 तक विस्तारित करने का निर्णय इस वैश्विक चिंता का संकेतक है कि अब मात्र खाद्य पहुँच पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह अनिवार्य हो गया है कि हम “भोजन की समझ” (food comprehension) को शिक्षा की मूलधारा में सम्मिलित करें। विशेषकर भारत जैसे देश में, जहाँ एक ओर अति-कुपोषण और दूसरी ओर बचपन में ही मोटापे के लक्षण प्रकट हो रहे हैं, यह प्रश्न मात्र स्वास्थ्य नीति का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण से जुड़ा हुआ है।

अब तक वैश्विक पोषण नीतियां जीवन के पहले 1,000 दिनों (गर्भाधान से 2 वर्ष) पर केंद्रित रही हैं, जो कि बाल विकास का संवेदनशील काल है। किंतु हालिया वैज्ञानिक अध्ययनों ने यह स्थापित किया है कि अगले 4,000 दिन, विशेषकर किशोरावस्था, न केवल विकासात्मक क्षतियों की पुनर्पूर्ति का अवसर प्रदान करते हैं, बल्कि यह काल भविष्य की जीवनशैली संबंधी बीमारियों (lifestyle disorders) से रक्षा का अंतिम द्वार भी है। इस कालखंड में बच्चों को “भोजन की कला” और “भोजन की नैतिकता” दोनों सिखाई जानी चाहिए और यह कार्य शिक्षण संस्थानों से बेहतर और कहीं नहीं हो सकता।

आधुनिक खाद्य परिदृश्य, जिसमें उपभोक्तावादी संस्कृति, डिजिटल विज्ञापन और त्वरित उपभोग के प्रलोभन व्याप्त हैं, ने बच्चों की भोजन संबंधी निर्णय क्षमता को विषम रूप से प्रभावित किया है। बच्चे आज विज्ञापन-प्रेरित विकल्पों, सामाजिक दबाव और भावनात्मक अनिश्चितताओं के चलते अपने पोषण संबंधी निर्णय ले रहे हैं। फलस्वरूप, उनके आहार से विविधता, मौसमीपन और स्थानीयता का लोप हो गया है—जो कि सतत पोषण (sustainable nutrition) के तीन प्रमुख स्तंभ हैं।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा “Minimum Dietary Diversity” को SDG-2 (भूख समाप्ति) के अंतर्गत एक वैश्विक संकेतक के रूप में अपनाया गया है, जो इस बात की निगरानी करता है कि क्या एक बच्चा बीते 24 घंटों में कम-से-कम 5 अलग-अलग खाद्य समूहों से भोजन कर सका। भारत के संदर्भ में यह आँकड़ा अत्यंत निराशाजनक है—राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, 6–23 माह के केवल 11% बच्चों को ही पर्याप्त विविधता वाला आहार प्राप्त हो रहा है। यह न केवल कुपोषण का सूचक है, बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली की उस विफलता का भी द्योतक है, जो बच्चों को भोजन संबंधी निर्णय लेने में सक्षम नहीं बना पा रही।

विद्यालय, केवल सूचना-प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवहार और जीवन शैली निर्माण की प्रयोगशाला होते हैं। यदि विद्यालयों में भोजन शिक्षा को सुसंगत, वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से प्रस्तुत किया जाए, तो यह न केवल बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी निर्णयों के लिए सक्षम बनाएगा, बल्कि उन्हें जलवायु-संवेदनशील और सांस्कृतिक रूप से सचेत नागरिक के रूप में भी तैयार करेगा। इसके लिए आवश्यक है कि एक राष्ट्रीय खाद्य साक्षरता पाठ्यक्रम तैयार किया जाए, जो प्री-प्राइमरी से लेकर माध्यमिक स्तर तक विकासात्मक रूप से उपयुक्त ढंग से क्रमबद्ध हो।

इस पाठ्यक्रम में पोषण विज्ञान, जैव विविधता युक्त आहार, स्थानीय खाद्य परंपराएं, खाद्य अपशिष्ट प्रबंधन, जल उपयोग दक्षता, कृषि-पर्यावरण संबंध और बाजार में उपलब्ध खाद्य उत्पादों के लेबल की समझ जैसे घटकों को सम्मिलित किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, बच्चों को यह सिखाना कि उनका भोजन कहाँ से आता है, कैसे उगाया जाता है और उसका पर्यावरणीय पदचिह्न (ecological footprint) क्या है—यह उन्हें सतत उपभोग के नैतिक सिद्धांतों की ओर प्रेरित करेगा।

पाठ्यपुस्तकों से इतर, स्कूलों में रसोई बागवानी, सामूहिक खाना पकाने के अभ्यास, स्थानीय व्यंजनों की कार्यशालाएं और छात्रों द्वारा डिज़ाइन किए गए जागरूकता अभियान इस शिक्षा को जीवंत बनाएंगे। वैश्विक अनुभव बताते हैं कि जहाँ-जहाँ बच्चों को अनुभवात्मक खाद्य शिक्षा दी गई, वहाँ उनकी आहार विविधता, खाद्य अपव्यय में कमी और पारिवारिक भोजन आदतों पर सकारात्मक प्रभाव देखा गया।

भारत सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) और स्कूल स्वास्थ्य और कल्याण कार्यक्रम ने इस दिशा में आधारभूत ढाँचा उपलब्ध कराया है, किंतु इसकी प्रभावशीलता तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब शिक्षकों को उपयुक्त प्रशिक्षण, पाठ्य सामग्री और समयबद्ध मूल्यांकन तंत्र के माध्यम से समर्थ किया जाए। साथ ही, निजी और सरकारी संस्थानों के मध्य साझेदारी मॉडल (PPP model) को भी बढ़ावा देना आवश्यक है, ताकि संसाधनों की कमी इस प्रयास की राह में बाधा न बने।

अंततः, बच्चों को “खाना कैसे खाएं” यह सिखाना, उन्हें केवल स्वस्थ नहीं बनाता, बल्कि उन्हें संस्कृति, परंपरा, प्रकृति और समाज के प्रति संवेदनशील बनाता है। ऐसे नागरिक जो यह समझते हों कि उनका भोजन न केवल उनकी शारीरिक ऊर्जा, बल्कि सामाजिक संरचना और पर्यावरणीय संतुलन का निर्माण करता है, वही एक टिकाऊ, समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की नींव रख सकते हैं। इसीलिए, भोजन शिक्षा अब विकल्प नहीं, नीति-संचालित अनिवार्यता होनी चाहिए, जिसकी शुरुआत आज के विद्यालयों से और अभी से होनी चाहिए।

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