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तीन कर्नाटक युद्धों का संक्षिप्त विवरण देते हुए, उन कारकों पर चर्चा कीजिए जिनके कारण भारत पर नियंत्रण के लिए संघर्ष में फ्रांसीसियों के विरुद्ध अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई।

दृष्टिकोण

(i) तीन कर्नाटक युद्धों का संक्षिप्त विवरण दीजिए और इसके महत्व का उल्लेख कीजिए।

(ii) उन विभिन्न कारकों का उल्लेख कीजिए जिनके कारण भारत में अंग्रेज सफल हुए और फ्रांसीसी विफल हुए।

(iii) तदनुसार निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।

परिचय

उत्तर: ‘कर्नाटक युद्ध’ 18वीं शताब्दी (1746-1763) के मध्य में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मध्य सैन्य संघर्षों की एक शृंखला थी। भारत में इन युद्धों में अंग्रेजों की विजय के उपरांत अन्य यूरोपीय देशों पर भी ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित हो गया।

तीन कर्नाटक युद्धों का संक्षिप्त विवरण

(i) प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-1748):

यह यूरोप में आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध का विस्तार था। इसकी शुरुआत तब हुई जब अंग्रेजों ने भारत में कुछ फ्रांसीसी जहाजों पर अधिकार कर लिया।

पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर-जनरल डुप्ले ने प्रतिक्रिया करते हुए मद्रास को घेर लिया। हालांकि, ऐक्स-ला-चैपल की संधि पर हस्ताक्षर करने के पश्चात् मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया।

(ii) द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-1754):

1748 में निजाम-उल-मुल्क की मृत्यु के पश्चात्, हैदराबाद में उत्तराधिकार के लिए गृह युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में चंदा साहिब और मुजफ्फर जंग को फ्रांसीसियों का समर्थन प्राप्त था, जबकि नासिर जंग और मुहम्मद अली को अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था।

अंतत: रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना आरकोट पर अधिकार करने में सफल रही।

यह युद्ध पांडिचेरी की संधि (1954) के साथ समाप्त हुआ, जिसमें मुहम्मद अली को कर्नाटक के नवाब के रूप में मान्यता दी गई। परिणामस्वरूप डुप्ले को इस्तीफा देना पड़ा और फ्रांस लौटना पड़ा।

(iii) तृतीय कर्नाटक युद्ध (1757-1763):

यह युद्ध यूरोप के सप्तवर्षीय युद्ध के विस्तार का परिणाम था।

अंग्रेजों ने 1757 में बंगाल में चंद्रनगर की फ्रांसीसी बस्तियों पर अधिकार कर लिया तथा वांडीवाश की लड़ाई (1760) में सर आयर कूट द्वारा मद्रास की सफलतापूर्वक रक्षा की गयी।

1763 में पेरिस की संधि पर हस्ताक्षर के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ, जिसमें फ्रांसीसी व्यापारियों के भारत में उनके व्यापारिक केन्द्रों के प्रशासन के अधिकार को समाप्त कर दिया गया।

भारत में अंग्रेजों की सफलता और फ्रांसीसियों की विफलता के कारण

(i) फ्रांसीसी महाद्वीपीय व्यस्तता:

फ्रांसीसी, उस समय अपने देश की ‘प्राकृतिक सीमाओं’ के लिए संघर्षरत थे साथ ही महाद्वीपीय विस्तार एवं औपनिवेशिक अधिग्रहण की कोशिश कर रहे थे। इसने उन्हें अन्य यूरोपीय देशों के साथ संघर्षरत कर दिया जिससे उनके संसाधनों पर दबाव पड़ा।

ब्रिटिश महत्वाकांक्षा मुख्य रूप से औपनिवेशिक विस्तार की थी इसलिए उन्होंने केवल इसी उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित किया और सफल हुए।

(ii) सरकार की प्रणालीः

फ्रांसीसी सरकार निरंकुश थी और सम्राट के व्यक्तित्व पर निर्भर करती थी। दूसरी ओर, इंग्लैंड में एक प्रबुद्ध कुलीनतंत्र का प्रभुत्व था।

(iii) कंपनियों का संगठन:

फ्रांसीसी कंपनी राज्य का एक विभाग थी जिसने अपने शेयरधारकों को लाभांश की गारंटी दी थी। इसकी वित्तीय स्थिति को सशक्त करने की उपेक्षा की गई और यह डुप्ले की विस्तारवादी नीतियों का समर्थन करने के लिए पर्याप्त नहीं थी।

दूसरी ओर, ब्रिटिश कंपनी एक स्वतंत्र वाणिज्यिक निगम थी और राजा एवं संसद ने कंपनी को सशक्त बनाने में अत्यधिक रुचि ली, इसलिए इसका व्यापार बहुत अधिक व्यापक था और इसके पास भारत में अपने युद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त धन था।

(iv) नौसेना की भूमिका:

ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध के दौरान, फ्रांसीसी समुद्री बेड़े की अत्यधिक क्षति हुई थी और एक समय में, इसके पास कोई युद्धपोत नहीं बचा था।

हालांकि, अंग्रेजों के पास एक बेहतर नौसैनिक बल था जो उन्हें यूरोप के साथ संचार व्यवस्था स्थापित करने और अपनी सेना को भूमि से बल की आपूर्ति करने में सक्षम बनाता था, साथ ही यह कर्नाटक युद्धों में फ्रांस को विश्व के अन्य हिस्सों से अलग-थलग करने में सक्षम थी।

(v) बंगाल के वित्तीय संसाधनः

जबकि दक्कन डुप्ले की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का समर्थन करने में सक्षम नहीं था, वहीं बंगाल न केवल सैनिकों की आपूर्ति कर रहा था बल्कि अंग्रेजों का समर्थन करने के लिए कर्नाटक के लिए भी सैनिक आपूर्ति कर रहा था।

(vi) नेतृत्व में निरंतरता का अभाव:

राज्य का नियंत्रण होने के कारण, फ्रांसीसी कंपनी के गवर्नर-जनरल को किसी भी समय वापस बुलाया जा सकता था, जैसा कि डुप्ले के मामले में हुआ था। दूसरी ओर, ब्रिटिश कंपनी ने सर आयर कूट और रॉबर्ट क्लाइव जैसे कुशल नेतृत्वकर्ताओं ने नेतृत्व को जारी रखा था।

निष्कर्ष

इस प्रकार, फ्रांसीसियों ने लगभग 40 वर्षों तक भारत में संसाधन खर्च किए, लेकिन भारत में एक फ्रांसीसी साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाए, जबकि ब्रिटिश ऐसा करने में सफल रहे।

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