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प्रश्न: भारतीय समाज के संदर्भ में ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) के विरुद्ध सार्वभौमिक टीकाकरण के नैतिक और सामाजिक निहितार्थों पर चर्चा कीजिए।

Discuss the ethical and social implications of universal vaccination against Human Papillomavirus (HPV) in the context of Indian society.

उत्तर: भारत में सर्वाइकल कैंसर की व्यापकता और एचपीवी वायरस से इसका सीधा संबंध सार्वभौमिक टीकाकरण को एक संभावित समाधान के रूप में प्रस्तुत करता है। किंतु इस प्रयास से जुड़े नैतिक और सामाजिक निहितार्थ बहुआयामी हैं, जो जैव-नैतिकता, सांस्कृतिक मूल्य और नीति-निर्माण की पारदर्शिता से जुड़े हुए हैं।

नैतिक निहितार्थ

(1) वैज्ञानिक अनिवार्यता की नैतिक समीक्षा: टीकाकरण को अनिवार्य बनाने से पूर्व वैज्ञानिक सहमति का होना आवश्यक है। यदि इसकी प्रभावकारिता केवल सीमित उपभेदों तक सीमित है, तो व्यापक आबादी पर इसका अनिवार्य प्रयोग नैतिक रूप से अविवेकपूर्ण और स्वायत्तता के सिद्धांत के प्रतिकूल कहा जाएगा।

(2) समानता और पहुंच की नैतिकता: यदि कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप आर्थिक दृष्टि से सभी तबकों तक नहीं पहुँचता, तो वह नीति नैतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत मानी जाती है। टीकाकरण की व्यापक कीमत और वितरण की असमानता इसे नैतिक रूप से असंतुलित बना देती है।

(3) सांस्कृतिक असंवेदनशीलता का नैतिक संकट: भारतीय समाज में किशोरावस्था और यौन स्वास्थ्य अत्यंत संवेदनशील विषय हैं। टीकाकरण की समय-सीमा यदि सांस्कृतिक संवेदनाओं से मेल नहीं खाती, तो यह सामाजिक अविश्वास और नैतिक टकराव को जन्म दे सकती है, जिससे सार्वजनिक सहयोग बाधित होता है।

(4) नीति-निर्माण में पारदर्शिता की आवश्यकता: जब टीकाकरण कार्यक्रमों का मूल्य निर्धारण निजी हितों से संचालित हो और सरकार की भूमिका अपारदर्शी हो, तो यह नीति-निर्माण की नैतिक वैधता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की अनिवार्यता सर्वोपरि होती है।

(5) लिंग आधारित लक्ष्यता की नैतिक आलोचना: केवल महिलाओं को लक्ष्य बनाकर टीकाकरण कार्यक्रम चलाना लिंग-आधारित पूर्वग्रह को बढ़ावा देता है। पुरुषों को बाहर रखना न केवल वैज्ञानिक रूप से दोषपूर्ण है, बल्कि यह लैंगिक न्याय के नैतिक सिद्धांतों के भी प्रतिकूल है।

सामाजिक निहितार्थ

(1) यौन स्वास्थ्य कलंक का खतरा: एचपीवी को यौन-संचरित रोग के रूप में प्रचारित करने से समाज में यौन नैतिकता को लेकर पूर्वग्रह उत्पन्न होते हैं, विशेषकर युवतियों के विरुद्ध। इससे टीकाकरण के विरुद्ध सामाजिक प्रतिरोध और महिलाओं के चरित्र पर अनावश्यक टिप्पणियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

(2) वित्तीय बोझ और संसाधनों का असंतुलन: सरकारी स्वास्थ्य बजट सीमित होने के कारण यदि महंगी वैक्सीन पर अधिक धन व्यय होता है, तो अन्य आवश्यक सेवाओं जैसे मातृ स्वास्थ्य या पोषण कार्यक्रमों की उपेक्षा हो सकती है। इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में संसाधनों का असमान वितरण उत्पन्न होता है।

(3) समाज में वैज्ञानिकी साक्षरता की भूमिका: भारतीय समाज में यौन स्वास्थ्य और टीकाकरण पर ज्ञान का अभाव जागरूकता अभियानों की अनिवार्यता को रेखांकित करता है। यदि यह शिक्षा वैज्ञानिक, सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त और विश्वसनीय न हो, तो समाज में भ्रम, विरोध और अविश्वास की स्थिति बनी रहती है।

(4) निजी लाभ और सार्वजनिक हित का द्वंद्व: निजी कंपनियों के लाभ-प्रेरित दृष्टिकोण के कारण यदि टीकाकरण नीति जनस्वास्थ्य के मूल लक्ष्यों से विचलित हो जाए, तो यह सामाजिक असंतोष और अस्वीकार्यता को जन्म देती है। ऐसी परिस्थितियों में जनसहभागिता बाधित होती है और प्रभावशीलता में कमी आती है।

(5) लिंग समानता की सामाजिक अनिवार्यता: टीकाकरण नीति यदि केवल महिलाओं तक सीमित रखी जाती है तो यह लैंगिक भूमिका की सामाजिक संरचनाओं को और कठोर बनाती है। समाज में समानता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब सभी लिंगों को स्वास्थ्य सुरक्षा में समान रूप से सम्मिलित किया जाए।

भारत में एचपीवी के विरुद्ध सार्वभौमिक टीकाकरण के संदर्भ में नैतिक और सामाजिक आयामों की उपेक्षा नीति-निर्माण को अलोकतांत्रिक बना सकती है। एक न्यायसंगत, साक्ष्य-आधारित और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील दृष्टिकोण ही स्वास्थ्य अधिकारों की रक्षा करते हुए समाज में स्वीकार्यता प्राप्त कर सकता है।

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